Menu
blogid : 241 postid : 7

खुद से डरो, शिवसेना से नहीं

यथार्थ
यथार्थ
  • 5 Posts
  • 65 Comments

एक अराजक, जातिवादी, क्षेत्रवादी, संकीर्ण मानसिकता वाले दल पर लिखने में समय और श्रम क्यों जाया किया जाए? जिनकी जाती हुई बहार है, जो दिये की आखिरी लौ की तरह टिमटिमा रहे हैं और जो जल्दी ही किसी म्यूजियम में डायनासोर के बुतों की बगल में खड़े होंगे, वे इस समय अगर सड़क पर उतर कर अपनी कुंठा निकाल रहे हैं तो यह उनकी समस्या है। समस्या उस राज्य सरकार की भी है जो माफिया और शिवसेना से एक समान डरती है।

 


लेकिन यह मौका है आइने में झांकने का। आस्ट्रेलिया और जर्मनी की निन्दा करने वाले हम हिंदुस्तानियों को यह मान लेना चाहिए कि हम उनसे कम नस्लवादी नहीं। अवर्ण-सवर्ण के सवालों में उलझे हम सब अभी तक कनौजिया और सरयूपारी से तो ऊपर उठ नहीं सके। इसी में परेशान रहते हैं कि सक्सेना और कुलश्रेष्ठ में ऊंचा कौन या पंत की धोती बड़ी कि जोशी जी की? अगर सरदार पटेल न होते तो छोटी बड़ी साढ़े पांच सौ रियासतों वाला यह देश कैसे राष्ट्र बनता? उन्हीं सरदार की जयंती कुर्मी समाज मनाता है। शायद वह दिन भी आये कि किसी बैनर में लिखा मिले, ‘वैश्य हृदय सम्राट महात्मा गांधी’। हम सबके अंदर एक शिवसैनिक है क्योंकि हम अपने महापुरुषों और राष्ट्रभक्तों को जाति-वर्ग के खाने में बांट चुके हैं। गाहे बगाहे लोहिया को भी लोग वैश्यों वाले खाने में फिट कर लेते हैं। एक समय था लखनऊ विश्वविद्यालय के सामने आटो में अगर कोई अफ्रीकन छात्र आकर बैठक जाए तो पहले से बैठे लोग अपने में और सिकुड़ जाते कि कहीं उससे छू न जाएं। यह स्थिति आज भी हो तो ताज्जुब नहीं। इसलिए वानप्रस्थी होने से बच रहे बाल ठाकरे और उनकी सन्तति की निन्दा करने से पहले अपने अंदर के राज ठाकरे को मारें। कृपया।

 


अब सवाल उन महाराष्ट्रियों से जो दूसरे राज्यों में रहते हैं। शिवसेना वही करेगी जहां उसे वोट दिखेगा लेकिन आप क्यों वोट बनते हैं? क्यों उत्तर प्रदेश या बिहार में रहने वाले महाराष्ट्र के लोग आवाज नहीं उठाते? कोई सभा? कोई छोटा मोटा सम्मेलन? समर्थन और एकजुटता दिखाने का कोई और तरीका? महाराष्ट्र सिर्फ मराठों का नहीं है। वह महारों का भी उतना ही है जितना कुनबियों का। चितपावन अगर वहां हैं तो मांग समुदाय भी वहीं का है। जैसे उत्तर भारत के कायस्थ वैसे ही महाराष्ट्र के सीकेपी (चंद्रस्थ कायस्थ प्रभु) और एसकेपी (सूर्यस्थ कायस्थ प्रभु)। बेशक, दूसरों प्रदेशों में महाराष्ट्र वाले तमिलों और मलयालियों की तरह विस्तारित नहीं है लेकिन इससे जवाबदेही की उनकी जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती।

 


मुम्बई अगर सपनों का शहर है तो किस वजह से? मुख्यत: सिनेमा के कारण। शिवसेना को समझना चाहिए कि जिन फिल्मों के कारण स्थानीय लोगों को दशकों से रोजगार मिला, उनके नायक उत्तर से आये और नूतन व माधुरी दीक्षित जैसे अपवाद छोड़ दें तो नायिकाएं दक्षिण से। इसीलिए जवाबदेही उन बच्चनों और दिलीप कुमारों और धरमिंदरों की ज्यादा हो जाती है जो मूक दर्शक बने हुए हैं। बहू को अवार्ड न मिलने पर जिनका ब्लाग आल इंडिया रेडियो हो जाता है (उपमा पुरानी है लेकिन अभी चलेगी) वे क्यों नहीं खुलकर यह कहने की हिम्मत जुटा पाते कि महाराष्ट्र निवासियों एक पार्टी के बहकावे में मत आओ, जितना तुम्हारा हक लखनऊ, पटना और बेंगलूर पर है उतनी ही हमारा मुम्बई पर है। वे यह क्यों नहीं कह पाते कि जो मराठी बोले, वह मुम्बई या महाराष्ट्र का हुआ तो इस आधार पर तो मध्य प्रदेश का भी विभाजन होना चाहिए जहां की आधी रियासतें मराठा क्षत्रपों की थीं।

 


यह सवाल उन लता मंगेशकर से भी पूछा जाना चाहिए जो अपने घर के सामने बन रहे एक पुल से इस कदर आजिज थीं कि मुम्बई छोड़ने को तैयार लेकिन उन हिन्दी भाषियों की तरफ से एक शब्द नहीं बोल पातीं जिन्होंने उन्हें अपने दिल में जगह दी। क्यों बड़े और प्रसिद्ध लोग विवाद से बचते हैं? इसलिए कि उन्हें पता है कि जब न बोलने से उनकी लोकप्रियता में एक मिलीग्राम भी फर्क नहीं पड़ना तो क्यों बोला जाए।
इसलिए मनसे और शिवसेना की नहीं निन्दा खुद की और उनकी की जानी चाहिए जो खामोश रहते हैं।

 


समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध

 

 

 

 

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh