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‘महादेवी बहन, दिल्ली मेरी नहीं है। राष्ट्रपति भवन मेरा नहीं है। अहंकार से मेरी पोतियों का दिमाग खराब न हो जाए, तुम इसकी चिन्ता करो। वे जैसे रहती आयी हैं, वैसे ही रहेंगी। कर्तव्य विलास नहीं, कर्म निष्ठा है।’
यह पत्र लिखने वाले थे प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और लिखा गया था प्रसिद्ध साहित्यकार महादेवी वर्मा को। राजेंद्र बाबू की पोतियां उस समय महिला महाविद्यालय विद्यापीठ, प्रयाग में पढ़ती थीं और महादेवी जी उनकी शिक्षिका होने के साथ स्थानीय अभिभावक भी थीं।
विष्णु जी ने स्व. जनेश्वर मिश्र पर जो चर्चा शुरू की, उसी सन्दर्भ में यह सवाल लाजिमी हो जाता है कि क्या आजकल का राजनीतिक नेतृत्व यह उदाहरण पेश कर सकता है? अपने संस्मरण में महादेवी जी ने एक और उदाहरण दिया है। राजेंद्र बाबू के निमन्त्रण पर एक दिन वह दिल्ली पहुंचीं। संयोग से यह वह दिन था जिस दिन राजेंद्र बाबू सपत्नीक उपवास करते थे। मेहमाननवाजी में कमी न हो तो राष्ट्रपति ने पूछा, तुम क्या खाओगी, जो कहो वही बन जाए। अतिथि भी संकोची..सोचा ये लोग व्रत रखे हैं, कहां झंझट करेंगे, इसलिए कह दिया जो आप खाएंगे, मैं भी वही खा लूंगी। भोजन का समय हुआ तो भारत के राष्ट्रपति और उनकी पत्नी जो बिहार के जमींदार परिवार से थीं, ने उबले आलू खाकर पारायण किया।
मोटी तोंद के बावजूद खेल महासंघों पर काबिज, कई-कई चेहरे लगाने वाले, दलाली और दुकानदारी की नई-नई परिभाषाएं गढ़ते नेताओं को देखने की अभ्यस्त नई पीढ़ी को ये बातें शायद अजीब लगें। राजनीति का हर वाद जहां बाजारवाद में बदल चुका है, वहां जनेश्वर या मोहन सिंह जैसे लोग दूसरी दुनिया से आए हुए ही लगेंगे। संसद और विधानसभाओं के हर सत्र के बाद सदन के भीतर संासदों और विधायकों की निष्क्रियता की खबरें छपती हैं। अपने लिए भत्तों का जुगाड़ करने में माहिर सुविधाभोगी राजनीति ने पिछले दिनों एक और कारनामा कर दिखाया। यह कि निर्वाचित जन प्रतिनिधियों से टोल टैक्स नहीं लिया जाएगा। इसका प्रस्ताव तैयार है। जरा पूछो तो भाई क्यों? आसमान से उतरे हो!! आम आदमी की तरह नहीं रह सकते!! इन्हीं कारणों से नेता अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं। ऐसा नहीं कि उनमें अच्छे लोग नहीं। हैं और हर दल में हैं। लेकिन, वे बोलते नहीं। आवाज नहीं उठाते और इस तरह ज्यादा बड़ा अपराध करते हैं।
..लेकिन टीवी पर चमकने वाले नेताओं की ही बात क्यों करें। छोटे-छोटे छात्रसंघों के बाहर खड़ी दीर्घकाय गाडि़यों के लिए पैसा कहां से आता है। यही वजह है कि विकास प्राधिकरणों और रेलवे की ठेकेदारी में बदली छात्र राजनीति अरसे से बड़े फलक पर धमाके नहीं कर सकी है। नेतृत्व में अपने आप सुधार होगा, यह आशा हमें छोड़ देनी चाहिए। उनमें बदलाव की कोशिश हमें ही करनी होगी। उसको जिसे आम आदमी कहा जाता है। गत लोकसभा चुनाव राजनीति को आचरण का पाठ पढ़ाने की सफल कोशिश थे। शुरुआत अच्छी हुई है और यह भरोसा किया जा सकता है कि अगला आम चुनाव तस्वीर में और उजले रंग भरेगा।
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